कैसे बचेगी सालों की बनाई साख ? : क्या यह लोकसभा चुनाव कुछ नेताओं के लिए सियासत की सांझ की तरह है ?

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How will the reputation built over years be saved? Is this Lok Sabha election like the evening of politics for some leaders? How will the reputation built over years be saved? Is this Lok Sabha election like the evening of politics for some leaders?

सियासत में विचारधाराओं की लड़ाई होती है. यहां कोई किसी का सगा नहीं होता, हुकूमत को हांकने की ही बेकरारी सबों में रहती है. पर विडंबना यहां यह है कि, जिसे भी सत्ता के स्वाद लगा और उसमे खोया तो फिर आखिरी सांस तक इस गुलाबी मायाजाल में ही फँसा रह जाता है. उसके लिए निकलना उस पिजरें के तोते की तरह हो जाता, जो हर सुबह -शाम अपनी आजादी की आस लिए रहता है. सियासत चिज़ ही ऐसी अजीब होती है. जो न जीने देती है और न मरने देती है.झारखण्ड की इस लोकसभा चुनाव में कई दिग्गज सांसदों ने टिकट हासिल करने के लिए खूब तिकड़म, हथकंडे और माथापच्ची की.और उस विचारधारा और गुमान को भी तिलांजली दे दी. जिसे लेकर मंचों और सभाओं में चीख -चीख कर उस विचारधारा के रंग बिखेरते और बखान किया करते थे. लेकिन, यही विचारधारा टिकट के खातिर चारों खाने चित नजर आई. फिर हुआ वही जिसका डर था.सांसदी का टिकट हाथ नहीं आया और लटक गया. आज उनके सामने हालत, यह पैदा हो गई है कि, आखिर जाय भी जाय तो किधर. आगे कुआ और पीछे खाई वाले हालात नजर आते है.दरअसल, गलती इन बुजुर्ग नेताओं की नहीं, बल्कि इस सियासत और उस सत्ता की है, जिसने उनकी जिन्दगी में शोहरत, दौलत, ताकत और रुतबा दिए. एकाएक, छिन जाने की बेचैनी, तड़प और लालसा ने ही इस मुहाने पर ला खड़ा कर दिया. इसकी छटपटाहट के चलते ही, न घर के और न घाट के हालात पैदा हो गए.

उदाहरण के तौर पर भाजपा के लाल कृष्ण आडवाणी को लीजिये. जब दो बार प्रधानमंत्री के लिए आडवाणी लड़े और जब तीसरी बार मौका 2014 में नहीं मिला, तो उनकी हालत क्या हो गई थी. सार्वजनिक मंचों पर भी, वह पीएम मोदी की शिकायत करते फिरते थे. उनके सामने तो कोई चारा भी नहीं था, सिवाय चुपचाप रहने के.हालांकि, खुद को उन्होंने वक़्त के साथ ढाल लिया और समझ गए की उम्र के साथ -साथ सियासत की भी शाम हो गई है.ऐसा ही कुछ झारखण्ड के तजुर्बेकार सियासतदानों के साथ भी इसबार घटा. गिरिडीह से पांच बार के सांसद रविंद्र पाण्डेय ने बीजेपी से लेकर कांग्रेस तक टिकट के लिए जोर लगाया. लेकिन, दाल नहीं गली, आज उनके सामने हालत ये है कि, भाजपा में ही उनकी साख कमजोर हो गई है.ठीक उसी तरह रांची से बीजेपी के पांच बार सांसद रहें रामटहल चौधरी इस बार कांग्रेस पार्टी से लोकसभा लड़ना चाहते थे. लेकिन, उनके सामने धोखा हो गया. न माया मिली और न ही राम मिला. रामटहल चौधरी ने अपना दर्द भी बयां किया कि कैसे उनके साथ नाइंसाफी और धोखा किया गया . हालांकि, वे 2019 में ही बीजेपी से बगावत करके रांची से निर्दलीय चुनाव लड़ा था. लेकिन, पराजय का सामना करना पड़ा था. एकबार फिर उन्होंने अपनी पुरानी पार्टी बीजेपी में आ गए है.

ऐसा ही कुछ चतरा में गिरिनाथ सिंह के साथ हुआ. वह भी कांग्रेस के टिकट से चतरा लोकसभा में लड़ना चाहते थे. लेकिन, उन्हें भी नाकामी हाथ लगी और टिकट के. एन त्रिपाठी को मिल गया. बहुत सारे ऐसे नेता थे, जिसने टिकट की आस पाली थी. जिसमे धनबाद से कांग्रेस के पूर्व सांसद ददई दुबे, जलेश्वर महतो और कई नाम थे . लेकिन, उनकी मुराद पूरी नहीं हुई. खैर, आगे इनका राजनीतिक भविष्य क्या होगा. ये तो वक़्त तय करेगा. लेकिन. इन नेताओं की उम्र भी अब ज्यादा हो गई है. ऐसी सूरत में, वो खुद भी जान गए है कि, हर चिज़ की एक समय होती है. कोई भी चिज़ स्थायी नहीं होती, बल्कि इस ताकतवर समय के हिसाब से ही खुद को ढालना चाहिए. इसी में ही समझदारी है और जिससे उनकी सालों की बनाई साख भी बच सकती है.

बेरमो से पंकज सिंह की रिपोर्ट..


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